जो भी लोग उत्तराखंड में भू आंदोलन कर रहे हैं वो एक गलत प्रथा को जन्म दे रहे हैं हम सब भारतवासी है व हमे स्वतंत्रता होनी चाहिए कि हम कँहा रहे व निवेश करें। यही कानून जब जम्मू कश्मीर से हटता हैं तो हम ख़ुशी मनाते हैं व अपने ही प्रदेश में इसे लागू करना चाहते हैं क्यों? मान लो अगर अन्य प्रदेशो में भी यही प्रथा शुरू हो जाये तो क्या हम अपने लोगो की उतनी संख्या को प्रदेश में संभाल पाएंगे? क्या हम उन्हें वह संसाधन व अवसर प्रदान कर पायेंगे जो अन्य प्रदेशो में उन्हें मिल रहे हैं?
क्या आप जानते हैं की जितने लोगो ने पहाड़ में जमीन नहीं खरीदी हैं उनसे कई गुना हमारे लोगो ने प्रदेश से बाहर जमीन खरीदी हैं तो क्या हम वो सब त्यागने को तैयार हैं या हमें दोनों हाथो में लड्डू चाहिए? क्या यह अन्याय नहीं हैं?
इसलिए बैठे, सोचे व भेड़ चाल से बचे। चुनाव का समय हैं यह ओर यह मुद्दा भाजपा के लिए गले की हड्डी व कांग्रेस के लिए वैतरणी के समान हैं तभी कांग्रेस इसके पक्ष में बोल रही हैं| आप मानिए की सिर्फ जमीन का व्यवसाय छोड़ दे तो इससे उत्तराखंड को फायदा ही होगा| हमें बाहरी क्या हमारे अपने लोगो के लिए भी जमीन में निवेश नहीं होना चाहिए| अगर आप रहने के लिए व उद्योगों के लिए जमीन खरीदते हैं तो आपका स्वागत हैं लेकिन आपको उसपर तुरंत कार्य करना होगा व एक व्यक्ति की जमीन खरीद की सीमा भी सुनिश्चित होनी चाहिए व अगर व्यक्ति तय समय पर उसपर मकान व उद्योग नहीं लगाता हैं तो उसपर 7 गुना सम्पति कर लगना चाहिए|
आप घोड़े को जंजीर पहनाकर गधे के साथ क्यो दौड़ाना चाहते हैं? इसलिए आप आगे आये और अपने लोगो को सशक्त बनाये। हम लोग जैनियों, मारवाड़ी, पारसी व सिख समुदाय से प्रेरणा क्यों नहीं ले सकते हैं? वो लोग अपने समुदाय व लोगो को बढ़ाने के लिये हर संभव प्रयास करते हैं अपितु बिना ब्याज का ऋण व अपने ही लोगो से बढ़ावा देने के लिए उनसे ही माल खरीदते हैं|
लेकिन उत्तराखंड में हमारे लोग लोन में भी सब्सिडी ढूंढते है। सक्षम होते हुए भी फ्री का राशन चाहते हैं। स्कूलों में केवल घुट्टी पिलाई जाती है की पढोगे तो अच्छी नौकरी मिल जायेगी| क्या हम में से किसी ने यह सोच जगाने की कोशिश की है कि हम भी अपना व्यवसाय या कुछ नया कर सकते है? हम भी सक्षम हैं लेकिन उसके लिए सोच व ऊज (उर्जा) लानी होगी व अपने को ईमानदार बनना होगा|
मुझे याद हैं की मेरे एक मित्रं ने डाबर में अपनी नौकरी को त्यागकर रामनगर में मसालों की फैक्ट्री खोली ताकि वो अपने लोगो को रोजगार दे सके लेकिन सात महीने में ही वो उनसे तंग आ गया क्योकि काम पर आने पर पहले उन्हें चाय चाहिए, हर घंटे बीडी व खैनी के बिना हाथ पाँव कापने लग जाते थे व अपने चाय के बर्तनों को साफ़ करने के लिए भी उन्हें एक व्यक्ति चाहिए था| कभी काम ज्यादा हो तो बोल देते थे की टाइम हो गया हैं अब नहीं हो पायेगा| सबसे मजेदार बात तो यह थी की जिस दिन मिर्ची पिसने की बारी होती थी तो सब गायब हो जाते थे और मजबूरी में उसे ही मिर्ची खुद पीसनी पड़ती थी| आज उसके पास बिहार से लाये कर्मचारी है वो उनके लिए सब करते हैं|
हम लोग उत्तराखंड में भू कानूनों का विरोध करके गलत उदाहरण स्थापित कर रहे है। हमे आने वाली पौध (पीढ़ी) के लिये प्रेरणादायक माहौल बनाना चाहिए। शराब, खनन, भ्रष्टाचार, शिक्षा व स्वास्थ जैसे मुद्दों के लिए आगे आना चाहिए ना की भू कानून जैसे असमानता के मुद्दे पर क्योकि जैसे आप मानते होंगे की आरक्षण एक कुप्रथा हैं भू क़ानून भी कुप्रथा से कम नहीं हैं इसलिए कृप्या अन्य कुप्रथाओ को जन्म ना दे क्योकि चुनाव नजदीक हैं व वोटो के लिए नेता लोग कुछ भी करने के लिए तैयार हो जायेंगे व भविष्य में हम ही नहीं हमारी पीढ़िया इसके दंश झेलेंगी|
आपके सुझावों का स्वागत है।
जीवन पंत
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