लोक सभा चुनावो ने आम आदमी पार्टी को अर्श से फर्श पर लाकर रख दिया हैं क्योकि आम आदमी पार्टी के मुख्यमत्री केजरीवाल के वादों को लोगो ने सिरे से नकार दिया हैं इसे देखकर यही लगता हैं की आम आदमी पार्टी से लोगो का पूरी तरह मोह भंग हो चूका हैं और हाल तो यह हैं की 70 में से 67 विधायक वाली पार्टी के कई प्रत्याशियों की जमानत तक जब्त होने की नौबत आ गए है|
इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव से ठीक 8 महीने पहले सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर आप का कोई भी नेता ‘भगवा लहर’ का सामना नहीं कर पाया। लेकिन इससे भी ज्यादा अपमानजनक बात यह है कि आप 18.1 प्रतिशत वोट शेयर के साथ दिल्ली लोकसभा चुनाव में तीसरे नंबर पर ही अपनी पकड़ बना पाई। जबकि 56.5% वोट शेयर के साथ पहले नंबर पर बीजेपी ने कब्जा किया और दूसरे नंबर पर 22.5 प्रतिशत वोट शेयर के साथ कांग्रेस रही।
दिल्ली आप का किला रहा है जहां उसने साल 2015 में 70 विधानसभा सीटों में से 67 पर जीत हासिल करके इतिहास रचा था। साल 2012 में अस्तित्व में आने के बाद से इस चुनाव में पार्टी ने सबसे खराब प्रदर्शन किया है। 2013 के विधानसभा चुनाव में जब पार्टी ने अपनी स्थापना के केवल एक साल पूरे किए थे, तब इसका वोट शेयर 29.5% था जो कि साल 2015 में बढ़कर 54 प्रतिशत पर पहुंच गया था। इसकी लोकप्रियता में साल 2017 से गिरावट आनी शुरू हुई जब नगर निगम चुनाव में आप को हार का सामना करना पड़ा था और वह केवल 26 प्रतिशत वोट पाकर ही सिमट गई थी।
आम आदमी पार्टी की चुनावी प्रासंगिकता दिल्ली के चुनावी प्रदर्शन पर ही निर्भर करती है क्योंकि पंजाब के अलावा दिल्ली के बाहर इसका कहीं भी चुनावी प्रतिनिधित्व नहीं है। और पंजाब में भी पार्टी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है।
लोकसभा चुनाव के नतीजे भी पार्टी के लिए अच्छे नहीं हैं क्योंकि ये विधानसभा चुनाव के लिए उनकी तैयारी को दिखाते हैं। आप के सातों उम्मीदवारों ने अपने प्रचार अभियान में अपने सरकार के प्रदर्शन को शामिल किया था, विशेषतौर पर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में किए गए कामों को प्रचार में शामिल किया गया जिसे लोगों ने काफी पसंद किया था। हालांकि इसके साथ पार्टी के मुखिया और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य के दर्जे वाला घोषणापत्र भी चुनाव जीतने में काम नहीं आया।
साल 2015 में आप के लिए जितने भी कारकों ने काम किया, उसमें सबसे ज्यादा राजनीति के एक नए विकल्प के रूप में इसका उभरना रहा। इस पार्टी को दूसरे राजनीतिक दलों से अलग देखा गया। हालांकि अब इस पार्टी ने भी दूसरी पार्टियों की तरह ही व्यवहार करना शुरू कर दिया है- जैसे चुनावी वादे पूरे न करना, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करना, गैर- पारदर्शी होना और पहले आरोप लगाना और फिर माफी मांगना, जिसकी वजह से लोगों का इस पार्टी से मोहभंग होना शुरू हो गया। केजरीवाल के कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए लगे रहना ने भी आप समर्थकों को निराश किया। राजनीतिक मजबूरियों ने केजरीवाल को उन विपक्षी नेताओं के साथ सार्वजनिक रूप से दिखाई पड़ने के लिए मजबूर किया जिन्हें कभी वह भ्रष्ट कहा करते थे।
हालांकि दिल्ली के आगामी विधानसभा चुनाव में आप के लिए बीजेपी को तो सिरदर्द है ही, साथ ही कांग्रेस को भी पीछे छोड़ना इसके लिए बड़ी चुनौती होगी। लोकसभा चुनाव के दौरान 2 आप नेता पार्टी से किनारा कर बीजेपी में शामिल हो ही चुके हैं और उनका दावा है कि 14 आप विधायक भी उनसे संपर्क में हैं। पार्टी के लिए सदन में अपनी सीटें बचाना चुनौती होगी। ये पार्टी के वही असंतुष्ट लोग हैं जो जिन्हें लोकसभा चुनाव के दौरान टिकट देने से इनकार किया गया था। हालांकि पार्टी में कोई ज्यादा आंतरिक संकट तो नहीं है क्योंकि पार्टी के अधिकतर मुखर नेता जिन्होंने केजरीवाल पर सवाल उठाया था, उन्हें या तो बाहर का रास्ता दिखा दिया गया या फिर साइड लाइन कर दिया गया।
दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे को मुद्दा बनाकर, 6 महीने पहले से ही लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार शुरू करने वाली आप को सातों लोकसभा सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा। अब पार्टी के पास खुद को इस स्थिति से उबारने के लिए केवल आठ महीने ही बचे हुए हैं।